राजनीतिक डायरी: भ्रष्टाचार और मंहगाई से हारी भाजपा

kantilalपूर्व सांसद दिलीप सिंह भूरिया के असामायिक निधन के बाद से ही भाजपा ने इस उपचुनाव की तैयारियां प्रारंभ कर दी थी । इस क्षेत्र में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह और संगठन पदाधिकारियों के दौरे अचानक बढ़ गये थे । मुख्यमंत्री ने घोषणाएं भी खूब की । प्रदेषाध्यक्ष नंदकुमार सिंह चैहान और संगठन महामंत्री अरविन्द मेनन ने संगठनात्मक जमावट के लिए कई बैठकें की । बूथ प्रबंधन से नीचे पन्ना कार्यकर्ताओं तक की पुख्ता जमावट के दावे किये गये थे । पर न तो मुख्यमंत्री की घोषणाएं और न ही संगठन की जमावट काम आ पाई । भाजपा ने चुनाव लड़ने की षुरूआत तो बहुत अच्छे तरीके से की थी । षुरूआती दौर में हावी रहने के बाद वह लगातार पिछड़ती गई । कांग्रेस के कांतिलाल भूरिया का प्रभाव बढ़ता गया । भाजपा प्रत्याषी निर्मला भूरिया, कांग्रेस के कांतिलाल भूरिया की तुलना में कमजोर प्रत्याषी थीं, पर उनके पीछे भाजपा की ताकत थी । जबकि भूरिया के पीछे कांग्रेस उतनी मुस्तैदी से खड़ी नहीं दिख रही थी, जितनी की निर्मला भूरिया के पीछे भाजपा थी । नामजदगी का पर्चा दाखिल करने के बाद तक कांतिलाल भूरिया पार्टी के रूठे हुये नेताओं की मान मनौव्वल में लगे रहे । जबकि भाजपा प्रचार का एक दौर पूरा कर चुकी थी।

DINESH-JOSHI1राजनीतिक डायरी
दिनेश जोशी
रतलाम-झाबुआ संसदीय क्षेत्र के उपचुनाव में भाजपा की हार के एक-दो नहीं अनेक कारण है । इस अप्रत्याषित और करारी हार में सबसे ज्यादा योगदान निचले स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार और बढ़ती मंहगाई का रहा । बिहार के चुनाव नतीजों, आर.एस.एस. प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण समाप्त करने संबंधी बयान, पंच-सरपंचों की भोपाल में हुई पिटाई, पंचायतों की राषि में कटौती से काम ठप्प होना, मनरेगा में काम नहीं मिलना, मजदूरी का भुगतान नहीं होना, व्यापमं घोटाला और पेटलावद विस्फोट का कांग्रेस ने जमकर फायदा उठाया । वह आदिवासियों को भाजपा के खिलाफ करने में सफल रही ।

स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं पर बाहरी नेताओं को थोपना भी भाजपा को भारी पड़ा । मतदाताओं से सम्पर्क करने के बजाय स्थानीय नेता और कार्यकर्ता बाहरी नेताओं की आवभगत और हाजरी में ही लगे रहे । मोदी लहर का न होना और गुटबाजी भी भाजपा को ले डूबी ।

कांग्रेस के कांतिलाल भूरिया के मुकाबले निर्मला भूरिया जैसा कमजोर प्रत्याषी को उम्मीदवार बनाना भाजपा की सबसे बड़ी चूक रही । कद्दावर आदिवासी नेता स्वर्गीय दिलीप सिंह भूरिया की साफ-सुथरी ईमानदार छबि का भी पार्टी लाभ नहीं उठा पाई । अति आत्मविष्वास, संगठन का खोखलापन, सदस्यता अभियान का फर्जीवाड़ा, अव्यवहारिक चुनावी व्यूह रचना और कागजी बूथ मैनेजमेंट की इस उपचुनाव में भाजपा को भारी कीमत चुकाना पड़ी । आर.एस.एस.से जुड़ी संस्थाओं और कार्यकर्ताओं का चुनाव से दूरी बनाये रखना भी भाजपा के लिए नुकसान दायक रहा । विद्यार्थी परिषद, सेवा भारती, संस्कार भारती, वनवासी परिषद और आदिवासी विकास परिषद के कार्यकर्ताओं की सक्रियता और भागीदारी इस चुनाव में देखने को नहीं मिली । बूथ प्रभारी और पेज प्रभारी भी मतदाताओं को पोलिंग बूथ तक ले जाने में असफल रहे । भाजपा की सबसे बड़ी रणनीतिक गलती यह रही कि उसने इस चुनाव को मुख्यमंत्री केन्द्रित बना दिया । इसका सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि चुनाव में प्रत्याषी और संगठन गौण हो गये । उनका उठाव हो ही नहीं पाया । इसके विपरीत कांग्रेस गौण रही कांतिलाल भूरिया पूरे समय चुनाव पर हावी रहे ।

पूर्व सांसद दिलीप सिंह भूरिया के असामायिक निधन के बाद से ही भाजपा ने इस उपचुनाव की तैयारियां प्रारंभ कर दी थी । इस क्षेत्र में मुख्यमंत्री षिवराज सिंह और संगठन पदाधिकारियों के दौरे अचानक बढ़ गये थे । मुख्यमंत्री ने घोषणाएं भी खूब की । प्रदेषाध्यक्ष नंदकुमार सिंह चैहान और संगठन महामंत्री अरविन्द मेनन ने संगठनात्मक जमावट के लिए कई बैठकें की । बूथ प्रबंधन से नीचे पन्ना कार्यकर्ताओं तक की पुख्ता जमावट के दावे किये गये थे । पर न तो मुख्यमंत्री की घोषणाएं और न ही संगठन की जमावट काम आ पाई ।

भाजपा ने चुनाव लड़ने की शुरूआत तो बहुत अच्छे तरीके से की थी । षुरूआती दौर में हावी रहने के बाद वह लगातार पिछड़ती गई । कांग्रेस के कांतिलाल भूरिया का प्रभाव बढ़ता गया । भाजपा प्रत्याषी निर्मला भूरिया, कांग्रेस के कांतिलाल भूरिया की तुलना में कमजोर प्रत्याषी थीं, पर उनके पीछे भाजपा की ताकत थी । जबकि भूरिया के पीछे कांग्रेस उतनी मुस्तैदी से खड़ी नहीं दिख रही थी, जितनी की निर्मला भूरिया के पीछे भाजपा थी । नामजदगी का पर्चा दाखिल करने के बाद तक कांतिलाल भूरिया पार्टी के रूठे हुये नेताओं की मान मनौव्वल में लगे रहे । जबकि भाजपा प्रचार का एक दौर पूरा कर चुकी थी ।

भाजपा की तरह कांतिलाल भूरिया भी काफी पहले से क्षेत्र में सक्रिय हो चुके थे । भाजपा का प्रचार षहरी क्षेत्रों तक केन्द्रित था जबकि कांतिलाल भूरिया भीतर ही भीतर गांवों को मजबूत कर रहे थे । दिन की अपेक्षा रात में ज्यादा सक्रिय रहते थे। गांव गांव में हुई उनकी खटिया बैठकें मतदाताओं को उनकी तरफ आकर्षित करने में कारगर साबित हुई । भाजपा गांवों में पहुंचती उसके पहले ही भूरिया अपने खंूटे मजबूत कर चुके थे । भूरिया पूरे समय भाजपा को इस मुगालते में रखने में सफल रहे कि कांग्रेस में फूट है, एकता दिखावटी है पिछले चुनाव की तरह इस बार भी कांग्रेसी भूरिया को बत्ती देंगे । पर हुआ उल्टा कांग्रेस की जगह भाजपा के कार्यकर्ता ही निर्मला भूरिया को धोखा दे गये । सच पूछा जाय तो भाजपा ने ही कांतिलाल भूरिया को जिताया ।

मतदाताओं की नब्ज टटोलने भोपाल से गये पत्रकारों को ग्रामीणों और आदिवासियों ने साफ-साफ बताया कि उन्हें योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है । मनरेगा का काम भी नहीं मिल रहा है । पंचायतों के काम भी ठप है । पिछले चुनावों के समय किये गये वायदे अभी तक पूरे नहीं हुये हैं । चुनाव जीतने के बाद विधायकों और नेताओं ने उनके गांव की तरफ मुड़कर भी नहीं देखा । स्थानीय नेता और कार्यकर्ता दलाली करने में लगे हुए है । अधिकारियों-कर्मचारियों से सांठ-गांठ के कारण उन्हें हर काम के लिए पैसा देना पड़ता है । यहां तक कि आधार कार्ड, बीपीएल कार्ड, राषन की पर्ची बनवाने तक के लिए उनसे दो सौ से लेकर पांच सौ रूपये तक वसूले जा रहे हैं । योजनाओं के लाभ को इतना जटिल बना दिया गया है कि कागजों की खानापूर्ति करते करते थक जाते हैं । फिर भी लाभ तब तक नहीं मिलता जब तक पैसे नहीं दे देते । बैंकों में भी बहुत कागजी खानापूर्ति करना पड़ रही है । दलालों के सहयोग के बिना काम नहीं हो पाते । इन कारणों से ग्रामीण आक्रोषित थे । गुस्सा दिखाने के बाद भी वे मुख्यमंत्री की तारीफ करते थे । कहते थे कि मुख्यमंत्री तो अच्छे हैं, उनकी योजनाएं भी अच्छी हैं पर उनका लाभ हमें नहीं मिल पा रहा है । इसके लिए वे स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं को जिम्मेदार ठहराते थे । बावजूद इसके वे भाजपा को वोट देने की बात करते थे । निर्मला भूरिया को वे नहीं जानते थे लेकिन कांतिलाल भूरिया को जानते थे । उनका कहना था कि निर्मला तो आज तक नहीं आई लेकिन कांतिलाल आते रहते हैं । ग्रामीणांे का यह कहना सच था क्योंकि निर्मला को पूरे संसदीय क्षेत्र में जाने का अवसर ही नहीं मिला था । ष्उन्हें पूरे संसदीय क्षेत्र में भ्रमण की आवष्यकता भी नहीं थी । उनकी सक्रियता सिर्फ पेटलावद विधानसभा क्षेत्र तक थी । उन्होनें उसे ही अपनी कर्मभूमि बना रखा था । इसके विपरीत कांतिलाल लोकसभा के पांच पांच चुनाव लड़ चुके है । हर चुनाव में उन्हें गांव गांव जाना पड़ा इसलिए ग्रामीण उनको व्यक्तिगत रूप से जानने लगे थे । यह बात भाजपा के मंसूबों पर पानी फेर गई ।

कागजों पर चमक, धरातल पर अंधेरा

मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल के 10 साल पूरा करने पर षिवराज सिंह चैहान के मन में संतोष का भाव है । उनके संतोष की यह अनुभूति कागजों में चमचमा रहे आंकड़ों को देखकर है । षायद धरातल की हकीकत को वे अब तक देख नहीं पाये हैं । अथवा चापलूस नौकरषाही ने उनके सामने हकीकत को नहीं आने दिया ।
अफसरों ने उनके सामने देष में सबसे ज्यादा विकास दर, 15 हजार मेगावाट की बिजली उपलब्धता, आधारभूत सरंचना में वृध्दि, सिंचाई के बढ़े रकबे और खाद्यान्न उत्पादन में कीर्तिमान के आंकड़ों को सुंदर फाईलो में सजाकर इस तरह पेष किया कि उनकी चकाचैंध में मुख्यमंत्री कड़वी सच्चाई नहीं देख पाये ।
भले ही मुख्यमंत्री यह कह रहे हों कि ब्यूरोक्रेसी को उन्होनंे अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया पर लोगों को तो यही लगता है कि प्रदेष के नौकरषाह निरंकुष हो चुके हैं, उन पर मुख्यमंत्री का कोई खौफ नहीं है । जनता की बात तो दूर अधिकारी राज्यपाल, मंत्रियों, सांसदों और विधायकों तक की नहीं सुनते । कोर्ट के आदेषों तक को ठुकरा देते हैं । उनके मन में आता है, वही करते हैं । नौकरषाही के निरंकुष होने के एक नहीं ढेरों उदाहरण हमारे सामने है ।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि मुख्यमंत्री की योजनाएं बहुत अच्छी है । देष भर में उनकी तारीफ होती है, अन्य राज्य भी उनका अनुकरण कर रहे है। पर उन योजनाओं का क्रियान्वयन ठीक नहीं होने से उनका लाभ आम जनता तक नहीं पहुंच पा रहा है । जनता के छोटे छोटे काम भी बिना रिष्वत खिलाये नहीं हो पा रहे हैं । इसका मतलब यह हुआ कि योजनाओं के क्रियान्वयन की ठीक से निगरानी नहीं हो पा रही है । सख्त मानीटरिंग बहुत आवष्यक है । मानीटरिंग के अभाव में गड़बडि़यां हो रही है ।

मुख्यमंत्री भले ही कहें कि उन्होनें भ्रष्टाचार पर अंकुष लगाया है । पर सच्चाई यह है कि भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे तक सर्वव्यापी हो गया है । जब छापे में छोटे छोटे अधिकारियों के यहां करोड़ों रूपये मिलते हों, आला अफसर फोन पर अपने मातहतों से रिष्वत की मांग करते हों तो यही स्पष्ट होता है कि भ्रष्टाचार चरम पर है । लोकायुक्त, आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो, को जांच उपरान्त भ्रष्टाचार के दोषियों पर कार्रवाई के लिए सरकार को दर्जनों चिट्ठियां लिखना पड़े, फिर भी कार्रवाई नहीं हो तो इसका मतलब साफ है कि दोषियों को सरकार का संरक्षण प्राप्त हैै।

जब प्रदेष के राज्यपाल रामनरेष यादव के निर्देषों और आदेषों को नजर अंदाज कर दिया जाता हो तो फिर प्रदेष में सुषासन होने के दावे को कैसे स्वीकारा जा सकता है । यदि सुषासन होता हो आम लोगों को छोटे छोटे कामों के लिए दफ्तरों के चक्कर नहीं काटना पड़ते ।, बिना रिष्वत खिलाये उनके काम आसानी से होते, दफ्तरों में फाईलों की रफ्तार इतनी तेज होती कि लोगों को पूछने की जरूरत नहीं पड़ती कि मेरे आवेदन का क्या हुआ ? यह सच है कि ई-पेमेन्ट और आॅन लाईन की व्यवस्था से सरकार के कामकाज में पारदर्षिता आई है, पर उतनी नहीं जितनी होना चाहिए ।

मुख्यमंत्री प्रदेष की वित्तीय स्थिति अच्छी होने का दावा जरूर कर रहे हैं, पर वे भी इस सच्चाई को नहीं झुठला सकते कि सरकार को विधानसभा का एक दिन का विषेष सत्र बुलाकर आठ हजार करोड़ से ज्यादा का अनुपूरक अनुमान पारित करना पड़ा । यदि वित्तीय स्थिति अच्छी होती तो उसे योजनाओं के स्वीकृत बजट में भारी कटौती नहीं करना पड़ती और न ही बाजार से 30 हजार करोड़ का कर्ज लेना पड़ता । प्राकृतिक आपदा के पीडि़तों को राहत और मुआवजा बांटने में इतना विलम्ब नहीं होता ।

मुख्यमंत्री की यह स्वीकारोक्ति सबको अच्छी लगी कि उनकी सरकार षिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में अपेक्षित सुधार नहीं कर पाई । अब वे षिक्षा के गुणात्मक विकास और उत्तम स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए काम करेंगे । कृृषि के परम्परागत तरीकों में बदलाव करने का उनका संकल्प भी समयोचित है । विनिवेष को आकर्षित करने में अपेक्षित सफलता नहीं मिलने को उन्होनें बिना झिझक स्वीकार किया है । उनकी यह बात बिल्कुल सही है कि समुद्र और एयर से कनेक्टिविटी नहीं होने के कारण बड़ा विनिवेष नहीं आ पा रहा है । षायद इसीलिए मुख्यमंत्री अब छोटे छोटे विनिवेष पर ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं । उनका प्रयास कुटीर, लघु और मध्यम उद्योगोें को बढ़ावा देकर रोजगार बढ़ाने का है । वे प्रदेष में ही टाटा-अंबानी जैसे उद्योगपति पैदा करने का सपना देख रहे हैं । इसके लिए उन्होनें स्वरोजगार योजनाओं को बढ़ावा देने का फैसला किया है । वे प्रदेष के बेरोजगारों को उद्योगों के लिए कर्ज उपलब्ध कराने में भी सहायता कर रहे हैं । यदि कृषि पर आधारित उद्योग और फुड प्रोसेसिंग इकाईयों का जाल फैलाने में सफलता मिल गई तो फिर म.प्र. को देष का सबसे विकसित राज्य होने से कोई नहीं रोक सकता ।

अन्ततः

रतलाम-झाबुआ की हार को भले ही भाजपा पचा नहीं पा रही हो, पर इस हार ने उसे अपनी कमजोरियों को समय रहते दूर करने का सुनहरा अवसर उपलब्ध कराया है । हार से सबक सीखकर वह अपनी कमजोर कडि़यों को मजबूत कर फिर से विजय पताका फहरा सकती है । मुख्यमंत्री षिवराज सिंह चैहान ने जरूर इस हार को सहज भाव से लिया है कि चुनाव में हार-जीत तो चलती रहती है । आज हारे हैं तो कल जीत भी सकते हैं । पर लगता नहीं कि कांग्रेस ने इस जीत से कुछ सबक सीखा है । वह इस जीत को 2018 के विधासभाओं में जीत के रूप में मानकर चल रही है, जो उसके लिए आत्मघाती है । कांग्रेस को यह सच्चाई स्वीकार करने में संकोच नहीं होना चाहिए कि यह जीत उसकी नहीं बल्कि कांतिलाल भूरिया की जीत है । क्योंकि वहां कांग्रेस तो लड़ी नहीं,सर्वत्र कांतिलाल ही संघर्ष करते नजर आये ।


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