राजनीतिक डायरी: आरक्षण बना भस्मासुर

DINESH-JOSHI1राजनीतिक डायरी दिनेश जोशी आतंकवाद से भी ज्यादा भयावह आरक्षण ने इतने खतरनाक आयाम अख्तियार कर लिये हैं कि वह भारत के लिए भस्मासुर साबित हो रहा है । रूक-रूक कर भड़क रही उसकी आग से समूचा भारत झुलस रहा है । यदि इस भस्मासुर का शीघ्र ही इलाज नहीं किया गया तो वह भारत को भस्मीभूत कर देगा । भारतीय संdefault.aspxविधान में आरक्षण का प्रावधान शोषित - पीडि़त दलित वर्ग के सामाजिक, आर्थिक  और शैक्षिणिक  उत्थान के मकसद से किया गया था । आजादी के 69 बरस बाद भी दलितों का बड़ा तबका भयावह विपन्नता और पिछड़ेपन से जूझ रहा है । आरक्षण का प्रावधान राजनीतिक फायदे के लिए बिल्कुल भी नहीं किया गया था । लेकिन सत्ता के भूखे राजनीतिक दलों ने आरक्षण को विस्तारित कर इतना विकृत बना दिया कि वह अब हमारे गले की हड्डी बन गया है । हम उसे समाप्त भी नहीं कर सकते और उसे वर्तमान स्वरूप में जारी भी नहीं रख सकते । वह ऐसी दुधारी तलवार बन गया है कि जिसकी मार से फायदा लेने वाले और फायदा नहीं लेने वाले दोनों हताहत हो रहे हैं । राजस्थान के गूजरों और गुजरात के पाटीदारों द्वारा आरक्षण के लिए किये गये आंदोलनों के जख्म अभी पूरी तरह भरे भी नहीं थे कि हरियाणा के जाटों ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया । उनका आंदोलन लगातार उग्र और हिंसक होता जा रहा है । वे मरने-मारने और सब कुछ तबाह करने पर तुले हुये हैं । दस से ज्यादा रेल्वे स्टेशनों  को वे आग के हवाले कर चुके हैं । एक दर्जन से ज्यादा शहरों में कर्फ्यू लगा हुआ है । मूनख नहर का पानी बंद कर दिल्ली में जलसंकट खड़ा कर दिया है । देखते ही गोली मारने के आदेश के बाद भी आंदोलन थमने का नाम नहीं ले रहा है । वे आरक्षण के लिए छाती पर गोली खाने के लिए भी तैयार है । उनकी एक ही मांग है कि या तो उन्हें भी आरक्षण दो या फिर किसी को भी आरक्षण नहीं दो, याने इसे खत्म कर दो । जाटों को आरक्षण देने से भी आरक्षण की समस्या का समाधान नहीं होने वाला। कल ब्राम्हण, क्षत्रीय, अग्रवाल और कायस्थ भी आरक्षण की मांग करने लगेंगे । फिर क्या होगा ? किस किस को आरक्षण देंगे ? सरकारी क्षेत्र को बर्बाद करने के बाद आरक्षण की आग निजी क्षेत्र में प्रवेश कर चुकी है । आरक्षण सबको नुकसान पहुंचा रहा है । जो उसका लाभ ले रहे हैं उनको भी और जो उनके लाभ से वंचित है उनको भी । जो लाभ ले रहे उन्हें सक्षम बनाने के बजाय अक्षम और निर्बल बना रहा है । वे इतने कमजोर हो चुके हैं कि बिना आरक्षण की बैसाखी के वे एक कदम भी नहीं चल पा रहे हैं । जो वंचित हैं, उनमें प्रतिशोध की ऐसी ज्वाला भड़क चुकी है  कि  उसमें वे स्वयं तिल-तिल कर जल रहे हैं । देश दो खेमों में विभक्त हो चुका है । एक तरफ आरक्षण की चाहत रखने वाले हैं तो दूसरी तरफ आरक्षण का विरोध करने वाले । अभी तक ये दोनों खेमे आमने सामने नहीं आये थे । लेकिन हरियाणा से इनमें प्रत्यक्ष टकराव का सिलसिला भी प्रारंभ हो गया है । वहां दूसरे तबकों ने जाटों के आंदोलन का विरोध करना शुरू कर दिया है । यह खतरनाक संकेत है । यदि आरक्षण के विरोध की यह प्रवृत्ति देश के दूसरे हिस्सों में फैल गई तो गृहयुध्द जैसे हालात बन जायेंगे । रविवार को ग्वालियर में जो कुछ हुआ वह ठीक नहीं । छोटी सी बात पर अम्बेडकर समर्थक दलित वर्ग के लोग लाठियां लेकर सड़कों पर उतर आये और तोड़फोड़ मचाना प्रारंभ कर दिया । पुलिस को उन्हें नियंत्रित करने में काफी मशक्कत करना पड़ी । यदि यही सब कुछ चलता रहा तो ’’मेड इन इंडिया’’ और ’’स्टैण्ड अप इंडिया’’ का क्या होगा ? दरअसल आरक्षण की समस्या का समाधान न तो इसके विरोध-समर्थन करने में है और न ही इसे पूर्णतः समाप्त करने में है । सरकारें अपनी नीतियों, नियमों और कानूनों में जनहितैषी बदलाव कर देश को आरक्षण की समस्या से निजात दिला सकती है । नीतियां, नियम और कानून इतने सरल और सीधे सच्चे हों कि इनमें हेरफेर करने की किंचित मात्र भी गुंजाईश नहीं रहे । कानूनों से द्विअर्थी और अस्पष्ट प्रावधान तुरंत समाप्त होना चाहिए । उनमें किन्तु परन्तु और क्षेपकों का कोई स्थान नहीं होना चाहिए । सभी क्षेत्रों में बिना भेदभाव के सबको स्वाभाविक रूप से समान अवसर प्राप्त होना चाहिए । यदि सरकारों ने ऐसा संभव कर दिया तो फिर आरक्षण स्वतः निरर्थक हो जाएगा । किसी में भी इसे प्राप्त करने की लालसा नहीं रहेगी । भारत को आरक्षण की आग में 1933 में ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री रामसे मेकडोनाल्ड ने ’’कम्यूनल अवार्ड’’ लागू कर धकेला । इसके जरिये उन्होंने  मुस्लिमों, सिखों, भारतीय ईसाईयों, आंग्ल-भारतीयों, यूरोपीय लोगों और दलितों के लिए विधायिका में सीटों के आरक्षण का प्रावधान किया । महात्मा गांधी ने इसकी जमकर मुखालफत की थी लेकिन बाद में भीमराव अंबेडकर ने उन्हें मना लिया तथा 1947 से देश में आरक्षण का नया युग प्रारंभ हुआ । विधायिका में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए सीटों का आरक्षण हुआ । इसी के साथ ईसा पूर्व 15 वीं शताब्दी से चली आ रही ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र वर्ण व्यवस्था का खात्मा हो गया । 1979 में मंडल आयोग बना । पर वह सामाजिक और शिक्षा में पिछड़े वर्गों के वास्तविक आंकड़े नहीं जुटा पाया तथा अपनी रिपोर्ट में उसने अजा.-जजा. से इतर उपजातियों के लिए अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का इस्तेमाल किया । 1982 में संविधान में सार्वजनिक क्षेत्र और सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं में अनुसूचित जाति के लिए 15 प्रतिशत और जनजाति के लिए 7.5  प्रतिशत आरक्षण का स्पष्ट प्रावधान किया गया । मंडल आयोग की रिपोर्ट पर जब देश में पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने ओबीसी के लिए सरकारी नौकरियों में 27  प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया तो बबाल मच गया । कई लोगों ने आत्मदाह कर विरोध जताया पर सरकार अपने फैसले पर दृढ़ थी । इस फैसले से जनता पार्टी को बड़ा राजनीतिक फायदा मिला । वर्तमान में एस.सी. एस.टी., ओबीसी  के अलावा जैनों, स्वतंत्रता सेनानियों, विकलांगों, सैन्य कर्मियों को भी आरक्षण प्राप्त है । इस तरह आरक्षण की सीमा सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित सीमा से ज्यादा हो गई है ।संसद से लेकर ग्राम पंचायत तक आरक्षण की जद में आ गये हैं ।  गनीमत है कि अभी धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं है । यदि यह हो गया तो बेड़ा ही गर्क हो जाएगा । कड़वी सच्चाई यह है कि आरक्षण से सबसे ज्यादा नुकसान प्रतिभा को हो रहा है । अयोग्यता को सर्वत्र बढ़ावा मिल रहा है । जबकि योग्यता धक्के खाती फिर रही है । जिस देश में प्रतिभा का तिरस्कार और उपेक्षा होगी वह सर्वांगीण विकास कैसे कर पायेगा ? उसका सतत् रसातल में जाना सुनिश्चित है । अन्ततः पूर्व मुख्यमंत्री एवं गृह मंत्री बाबूलाल गौर अपनी अटपटी बयानबाजी से हमेंशा मीडिया की सुर्खियों में बने रहते हैं । उनकी बयानबाजी अटपटी जरूर होती है लेकिन कहते वे खरी-खरी है। हाल ही में उन्होनें यह तल्ख टिप्पणी कर सरकार की माली हालत और स्मार्ट सिटी की हकीकत का खुलासा कर दिया है । उन्होनें राजधानी भोपाल को स्मार्ट सिटी बनाने के प्रयासों पर तंज कसते हुए कहा कि-घर में खाने को दाना नहीं और अम्मा चली चना भुनाने ।’’  

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